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हैप्पी बर्थडे टू यू, हैप्पी बर्थडे टू यू...’ जन्मदिन की शुभकामनाओं से भरा यह गाना सोती हुई ज्योति के कानों में अमृत-सा घोल रहा था. उसने अलसाई सी आंखें खोली तो देखा सामने बेटा-बेटी हाथों में गिफ्ट लिए खड़े थे, पतिदेव के हाथों में लाल गुलाबों का सुंदर गुलदस्ता था और सास ससुर के चेहरे पर वात्सल्य भरी मुस्कान थी.
सबका उत्साह देख ज्योति झट से उठ खड़ी हुई. उसके उठते ही दोनों बच्चे उससे चिपक गए,‘हैप्पी बर्थडे मम्मी’ कहकर गिफ़्ट थमाया तो उसने दोनों को बड़े प्यार से चूम लिया. फिर आगे बढ़ सास-ससुर के पैर छुए.
‘‘जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएं बेटी, यूं ही फलती-फूलती रहो...’’
‘‘बस-बस मां, फलने तक ठीक है, फूलने का आशीर्वाद मत दो वैसे भी आजकल इसका फूलना कुछ ज़्यादा ही हो रहा है...’’
पति ने चुटकी ली तो सासू मां ने उसे डांटते हुए पीछे धकेला और ज्योति को प्यार से बांहों में भर लिया. ‘‘चल हट परे, नज़र ना लगा मेरी प्यारी बहू को.’’
फिर पति ने विश करते हुए उसे गुलदस्ता दिया. ‘‘ख़ाली गुलदस्ते से काम नहीं चलेगा जनाब,’’ ज्योति इठलाते हुए बोली.
‘‘हम चलाएंगे भी नहीं मैडम, हमारी तरफ़ से पूरी तैयारी है. आज का पूरा दिन आपके नाम है. हमने काम से छुट्टी ले रखी है. अब सब फटाफट तैयार हो जाइए, हम सभी एक रिसॉर्ट जा रहे हैं, पूरा दिन वहां रहेंगे और बर्थडे एन्जॉय करेंगे.’’
सुनकर सभी चहक उठे और वह कमरा हास्य ध्वनियों से गूंज उठा.
‘‘पर तुम्हें इतना पसीना क्यों आ रहा है ज्योति?’’ पति ने पूछा तो वाक़ई उसने महसूस किया कि उसका शरीर पसीने से तरबतर हो रहा था. और फिर वह तुरंत अपने सपनों की दुनिया से बाहर आ गई. उसने महसूस किया उसकी सांसें धौंकनी-सी चल रही थीं. उफ़्फ़ वह फिर सपना देखने लगी!
जो देख रही थी वह सपना था उसके अपने भरे-पूरे परिवार का सपना... उसको मिल रहे प्यार और लाड़ दुलार का सपना... हां, सपने भी सच होते हैं. उसके भी तो सपने सच हुए हैं. बच्चे, पति और सास-ससुर तैयार होने चले गए तो ज्योति फिर से पसर गई बिस्तर पर. आंखें बंद की तो सामने घूम गई वह कहानी, जो एक अनाथ लड़की की थी.  
मां तो बरसों पहले ही दुनिया से विदा हो चुकी थी, 10 बरस पहले पिता के गुज़रते ही ज्योति दुनिया में बिल्कुल अकेली हो गई. ना कोई आगे ना कोई पीछे... उसकी चचेरी बहन उमा को उस पर दया आई और वह उसे अपने घर ले आई. इसको दया कहें या स्वार्थ पता नहीं, उसकी तभी डिलीवरी हुई थी, अकेले बच्चा संभल नहीं रहा था. सोच ही रही थी कि सहारे के लिए एक फ़ुल टाइम मेड रख ले और यह सहारा उसे 11 वर्षीया मासूम ज्योति में नज़र आया.
ज्योति अपनी स्थिति से अवगत थी अतः चुपचाप घर में आते ही दीदी की गृहस्थी संभाल ली. दीदी का व्यवहार शुष्क था पर बुरा नहीं. दीदी आराम से बैठी बच्चे के लाड़ करती, रोता तो उसको थमा सो जाती. घरेलू ज़िम्मेदारियों से मुक्त दीदी, जीजाजी के साथ घूमती, हंसती-बतियाती और ज्योति मशीन बनी घर के काम निपटाती रहती.
यूं ही दिन गुज़रते रहे और 11 साल की ज्योति कब 21 की हो गई, पता ही नहीं चला. इतने साल तो ठीकठाक निकले लेकिन कुछ दिनों से वह महसूस कर रही थी कि जीजाजी उसका कुछ ज़्यादा ही ध्यान रखना चाह रहे हैं. एक दिन उन्होंने ज्योति से अकेले में कहा,‘हम दोनों जब घूमने जाते हैं तो मैं तुम्हें भी ले जाना चाहता हूं, मगर तुम्हारी दीदी नहीं चाहती. यह मुझे अच्छा नहीं लगता आख़िर तुम अपनी ही हो, पराई नहीं... मैं तुम्हें अलग से घुमाने ले जाऊंगा बस अपनी दीदी को मत बताना.’ जीजाजी की लोलुप दृष्टि ज्योति को भीतर तक कंपा गई. उसने झिझकते हुए यह बात दीदी को बता दी और बस, जीजाजी का तो कुछ ना बिगड़ा मगर दीदी का व्यवहार उसकी ओर बिल्कुल बदल गया.
जीजाजी की उपस्थिति में वे उस पर ऐसे नज़र रखती जैसे वही जीजाजी को कहीं भगा ले जाएगी. दीदी के रूखे व्यवहार से साफ़ ज़ाहिर था कि वह अब उसके गले की हड्डी बन चुकी है जो न उगलते बन रही है न निगलते. ज्योति भी इतना समझ गई थी अब इस घर में रहना उसके लिए ख़तरे से ख़ाली नहीं है.
एक दिन दीदी की एक सहेली घर पर आनेवाली थी. दीदी ने उसे एक रात पहले ही बता दिया था कि नाश्ते-खाने में क्या क्या बनाना है. सुबह वह जल्दी तैयार होकर काम में जुट गई. दीदी की सहेली आ गई थी. दोनों में जमकर हंसी-ठठ्ठे चल रहे थे, पुरानी स्मृतियां ताज़ा हो रही थीं. सहेली ने ज्योति की पाक कला की जमकर तारीफ़ें की. वह समझ गई कि घर पूरी तरह ज्योति ने संभाल रखा है और उसकी सहेली रानी बनी बैठी है. पता नहीं क्यों, उनके जाने के बाद दीदी की ज़ुबान में बड़ी मिठास घुल गई वे उसे पास बिठाकर कहने लगी,‘सुन ज्योति तेरे तो भाग्य ही खुल गए. मेरी सहेली तेरे लिए अपने बड़े भाई के रिश्ते की बात करके गई है. उसका कपड़ों का शोरूम है. अच्छा खासा कमाता है. उन्हें कोई दान-दहेज नहीं चाहिए बस तेरे जैसी सीधी-सादी लड़की चाहिए, जो उनका घर संभाल ले. वह विधुर है उसकी पत्नी का देहांत हुए 4 साल हो गए हैं, उसका एक 8 साल का बेटा भी है, जो हॉस्टल में रहता है. मां-बाप मर चुके हैं, तू वहां रानी बनकर राज करेगी.’
जीवन में पहली बार ज्योति ने अपने लिए रिश्ते की बात सुनी, मगर उसमें कोई उमंग नहीं जगी. वह जानती थी शादी के नाम पर बस उसके घर बदल जाएंगे, ज़िम्मेदारियां बढ़ जाएंगी, मगर उसकी औकात वही रहेगी. फिर भी वह इनकार न कर सकी. करती भी कैसे, जीजा का वासनामय चेहरा सामने आते ही मन करता कहीं कुएं में या ट्रेन के आगे कूद मरे, तो फिर दूसरे घर में हक से चाकरी करना क्या बुरा है.      

Sapnon ka Ghar

ज्योति किसी गाय की तरह इस खूंटे से छूट, दूसरे खूंटे पर बंध गई. अपने से 12 साल बड़े विधुर दूल्हे के साथ की उसे कोई उत्कंठा नहीं थी. सुहाग कक्ष में बेजान लाश-सी बैठी थी, तभी उसकी नज़र बाजू के स्टूल पर रखे फ़ोटोफ्रेम पर पड़ी. वह एक छोटे लड़के की फ़ोटो थी. उसे देख ज्योति चौंक पड़ी. यह तो वही चेहरा है, जो उसे सपनों में आता है, उसके बेटे के रूप में... पता नहीं क्यों उसकी आंखें भर आईं. वह फ़ोटो को एकटक निहारे रही थी, तभी उसके पति मनोज कक्ष में आए धीर-गंभीर सौम्य छवि लिए, जिनकी नज़रों में ज्योति को वासना नहीं बल्कि अपने लिए सम्मान नज़र आया. उसके हाथ में फ़ोटोफ्रेम देखकर बोले,‘ये मेरा बेटा दक्ष है, हॉस्टल में रहता है.’
‘मगर ये तो हॉस्टल के लिए बहुत छोटा है. आपने इसे अपने साथ क्यों नहीं रखा?’
‘मैं पूरे दिन घर से बाहर ही रहता हूं, इसकी देखभाल नहीं कर सकता था इसलिए...’
‘पर अब तो मैं हूं ना, आप इसे घर ले आएं... कल ही...,’ ज्योति ने जिस अधिकार से यह बात कही, मनोज अभिभूत हो उठे. उनकी आंखों में ज्योति का स्थान यकायक ऊंचा हो आया. सुहागरात पर नई नवेली पत्नी ने मांगी भी तो क्या! उसके जीवन की सबसे बड़ी ख़ुशी. बजाय कहीं घूमने जाने के दोनों पंचगनी पहुंचे और बेटे को घर ले आए.
ज्योति एक संपूर्ण पत्नी ना सही मगर मां पहले ही दिन बन गई. अब उसे समझ आ रहा था कि यह शादी समझौता नहीं विधि का विधान था, जिसके संकेत उसे स्वप्न में भी मिल रहे थे. मगर इस परिवार में न सपने अक्सर दिखने वाले सास-ससुर थे, न बेटी थी.
ख़ैर मां-बेटे जल्द ही बहुत घुलमिल गए, उसके साथ ज्योति की भी खोई हंसी लौट आई. यह देख मनोज भी बेहद ख़ुश और संतुष्ट थे. जिस दांपत्य जीवन की शुरुआत अनेक आशंकाओं और समझौतों से हुई थी, वहां धीरे-धीरे प्रेम और अधिकार की कपोलें फूटने लगीं. अब वह परिवार ज्योति की मजबूरी नहीं‍, बल्कि हंसती-खेलती गृहस्थी बन चुका था, जिसके लिए वह अपनी बहन को मन ही मन बहुत दुआएं देती थी.
एक दिन मनोज शोरूम से बहुत उदास लौटे. ज्योति ने पूछा,‘क्या बात है, बड़े परेशान से लग रहे हैं?’
‘परेशान नहीं बस दुखी हूं. मैंने तुम्हें नासिक में रहने वाले अपने चाचाजी के बारे में बताया था ना...’
‘हां हां, जिनसे आप बहुत ज़्यादा जुड़े हुए हैं.’
‘हां वही, उनका बेटा उन्हें और चाची को वृद्धाश्रम भेज रहा है. कहता है वह उन दोनों की ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकता.’
‘ओह, यह तो बहुत ही बुरी बात है,’ ज्योति अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए बोली.
‘हां वो तो है, पर हम कर भी क्या सकते हैं,’ मनोज ने लाचारी दिखाई.
ज्योति थोड़ा रुक कर बोली,‘कर क्यों नहीं सकते? यदि आप उन्हें सच में पितातुल्य मानते हैं तो उन दोनों को यहां पर ले आइए. ना हमारे घर में जगह की कमी है और न दिल में... यहां पर वे आराम से रहेंगे.’

Sapnon ka Ghar

ज्योति का प्रस्ताव सुनकर मनोज उत्साह से भर उठे,‘चाहता तो मैं भी यही था ज्योति, मगर तुम्हें कहते हुए डर रहा था. उनके आने से तुम्हें क्या कोई समस्या नहीं होगी?’
‘समस्या काहे की, मेरा सौभाग्य कि इस उम्र में खोए माता-पिता वापस मिलेंगे.’
भाव-विभोर मनोज ने ज्योति को गले लगा लिया,‘कितना बड़ा दिल है तुम्हारा ज्योति, जानती हो, मैं दुनिया का सबसे ख़ुशनसीब इंसान हूं क्योंकि मेरे पास तुम्हारे जैसी पत्नी है.’ ऐसे प्यार और सम्मान भरे आलिंगन से ज्योति का रोम-रोम खिल उठा. सच्चे प्रेम की किरणों से उसके अतीत का अंधियारा छटने लगा और हर तरफ रौशनी ही रौशनी भर गई.
अगले दिन ज्योति और मनोज चाचा-चाची को लेने पहुंचे तो ज्योति उन्हें देखकर स्तब्ध रह गई. चाचा-चाची का चेहरा सपने में देखे गए सास-ससुर से मिलता था. वह इस ईश्वरीय चमत्कार के सामने मन ही मन नतमस्तक हो गई. ‘हे ईश्वर, जो परिवार आप मुझे दिखा रहे थे वह एक-एक करके पूरा हो रहा है, प्रेम और आदर करनेवाला पति, प्यारा बेटा, वात्सलमयी सास-ससुर...’
चाचा-चाची के आने से घर में बड़ी रौनक हो आई. चाची ज़बरदस्ती ज्योति को रसोई से बाहर कर उसका मनपसंद खाना बनातीं, उसके सिर में तेलमालिश करतीं. उससे न जाने कहां-कहां की बातें बतातीं. मां का ऐसा दुलार उसे पहली बार मिल रहा था. चाचा-चाची ने घर काफ़ी हद तक संभाल लिया था, तो ज्योति व्यापार में पति का हाथ बंटाने लगी. उसका हाथ लगते ही वहां भी दिन दूनी, रात चौगुनी तरक़्क़ी होने लगी. मनोज भी घर-व्यापार के सभी निर्णय उससे पूछकर लेने लगे थे. एक अनाथ असहाय लड़की ज्योति आज सौभाग्यशाली लक्ष्मी बन सम्मान पा रही थी. उसे जीवन में वह सबकुछ मिल गया था, जिसके कभी उसने सपने देखे थे. मगर उसकी आंखें उसकी बेटी का इंतज़ार कर रही थीं.
शोरूम का वॉच‍मैन कुछ दिनों से ड्यूटी पर नहीं आ रहा था तो उसकी खोज-ख़बर ली गई. पता चला मियां-बीवी कुलदेवी के दर्शन को जा रहे थे. रास्ते में बस दुर्घटनाग्रस्त हो गई. दोनों की मौक़े पर ही मृत्यु हो गई और 4 साल की बेटी अस्पताल में है, जिसकी ज़िम्मेदारी कोई रिश्तेदार नहीं लेना चाहता. ज्योति ने जैसे ही यह सुना तो दिल में खटका-सा हुआ, वह अस्पताल की और भागी... मनोज पूछते रह गए,‘इतनी तेज़ी में कहां जा रही हो?’
‘अपनी बेटी को लाने,’ ज्योति बिना रुके बोली.
‘बेटी... कौन-सी बेटी, किसकी बेटी?’ मनोज को कुछ समझ नहीं आया.
‘हमारी बेटी, जिसका मैं कब से इंतज़ार कर रही थी, बाक़ी वापस आकर बताती हूं.’ मनोज को उलझा छोड़ वह हॉस्पिटल चली गई, क्योंकि उसका हृदय जानता था कि वह कोई और नहीं, उसकी सपने में दिखी बेटी ही है. बेटी के घर आते ही ज्योति का परिवार पूरा हो चुका था. जैसे तिनका-तिनका जोडकर चिड़िया घोसला बनाती है, ऐसे ही उसने अपना परिवार बसा लिया था. अनाथपन की समस्त स्मृतियं धूमिल हो चुकी थीं और वर्तमान प्रेम और अपनेपन से भरपूर था.
आज उसका जन्मदिन था. सूर्यदेवता उसकी खिड़की पर उजली किरणों से दस्तक देकर उसे जैसे बधाई दे रहे थे. नींद में ही कानों में एक लय अमृत समान घुल रही थी,‘हैप्पी बर्थडे टू यू, हैप्पी बर्थडे टू यू.’ वह आंखें बंदकर उस मधुर संगीत का आनंद ले रही थी, क्योंकि वह जानती थी, आज यह सपना नहीं बल्कि उसकी हक़ीक़त है, जिसके लिए वह मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दे रही थी.

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मुंशी प्रेमचंद की कहानी जादू

कहानी   By  फ़ेमिनाTue, Sep 24, 2019
नीला,‘‘तुमने उसे क्यों लिखा?’’
मीना,‘‘किसको?’’
‘‘उसी को!’’
‘‘मैं नहीं समझती!’’
‘‘ख़ूब समझती हो! जिस आदमी ने मेरा अपमान किया, गली-गली मेरा नाम बेचता फिरा, उसे तुम्हारा मुंह लगाना उचित है?’’
‘‘तुम ग़लत कहती हो!’’
‘‘तुमने उसे ख़त नहीं लिखा?’’
‘‘कभी नहीं.’’
‘‘तो मेरी ग़लती थी क्षमा करो. मेरी बहन न होती, तो मैं तुमसे यह सवाल भी न पूछती.’’
‘‘मैंने किसी को ख़त नहीं लिखा.’’
‘‘मुझे यह सुनकर ख़ुशी हुई.’’
‘‘तुम मुस्कराती क्यों हो?’’
‘‘मैं?’’
‘‘जी हां, आप!’’
‘‘मैं तो ज़रा भी नहीं मुस्कराई.’’
‘‘मैंने अपनी आंखों देखा.’’
‘‘अब मैं कैसे तुम्हें विश्वास दिलाऊं?’’
‘‘तुम आंखों में धूल झोंकती हो.’’
‘‘अच्छा मुस्कराई. बस, या जान लोगी?’’
‘‘तुम्हें किसी के ऊपर मुस्कराने का क्या अधिकार है?’’
‘‘तेरे पैरों पड़ती हूं नीला, मेरा गला छोड़ दे. मैं बिल्कुल नहीं मुस्कराई.’’
‘‘मैं ऐसी अनीली नहीं हूं.’’
‘‘यह मैं जानती हूं.’’
‘‘तुमने मुझे हमेशा झूठी समझा है.’’
‘‘तू आज किसका मुंह देखकर उठी है?’’
‘‘तुम्हारा

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